Srikalahasti temple history: वायु रूप में विराजमान शिवलिंग को पुजारी तक नहीं करते स्पर्श, चंद्र हो या सूर्यग्रहण हमेशा खुला रहता है कपाट

चित्तूर स्थित श्रीकालहस्ती मंदिर में विराजमान हैं वायु लिंग, जहां शिव को कोई छू नहीं सकता।
दक्षिण का काशी: वायु रूप में विराजमान शिवलिंग को पुजारी तक नहीं करते स्पर्श, चंद्र हो या सूर्यग्रहण हमेशा खुला रहता है कपाट

चित्तूर:  महादेव और उनके भक्तों को समर्पित सावन का पावन माह चल रहा है। देश भर में भोलेनाथ के ऐसे कई मंदिर हैं, जिनके दर्शन मात्र से भक्तों का कल्याण हो जाता है। रहस्यों और चमत्कार से भरा ऐसा ही एक मंदिर आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में स्थित है, जिसका नाम श्रीकालहस्ती मंदिर है। 'दक्षिण के काशी' में भोलेनाथ वायु रूप में विराजमान हैं, जिसका स्पर्श पुजारी तक नहीं करते हैं।

मकड़ी, हाथी और काल से इस मंदिर का रहस्य और कथा जुड़ी है, और चंद्र ग्रहण हो या सूर्य ग्रहण, मंदिर का कपाट कभी बंद नहीं होता है।

आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में तिरुपति के पास स्थित श्रीकालहस्ती मंदिर, जिसे श्रीकालहस्तीश्वर मंदिर भी कहा जाता है, एक ऐसा पवित्र धाम है, जहां भोलेनाथ वायु लिंग के रूप में विराजमान हैं। इस मंदिर की खासियत यह है कि इस शिवलिंग को पुजारी तक स्पर्श नहीं करते। यह मंदिर न केवल अपनी आध्यात्मिक महत्ता के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि मकड़ी, सर्प और हाथी से जुड़ी रहस्यमयी कथाओं के लिए भी जाना जाता है।

स्वर्णमुखी नदी के तट पर बसा मंदिर प्राकृतिक सुंदरता और शांति का अनूठा संगम है। मंदिर परिसर में एक पवित्र बरगद का पेड़, जिसे स्थल वृक्ष कहते हैं, भक्तों की मनोकामनाएं पूरी करने के लिए प्रसिद्ध है। भक्त इस पेड़ के चारों ओर रंग-बिरंगे धागे बांधकर अपनी इच्छाएं मांगते हैं, जो मंदिर की सुंदरता को बढ़ाता है।

यह मंदिर भक्ति, विश्वास और चमत्कारों की कहानियों का खजाना है।

श्रीकालहस्ती मंदिर का नाम तीन भक्तों, मकड़ी (श्री), सर्प (काला), और हाथी (हस्ती) से लिया गया है। एक कथा के अनुसार, इन तीनों ने भगवान शिव की आराधना की और अपने प्राण त्याग दिए थे। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें मोक्ष प्रदान किया। मंदिर के शिवलिंग के आधार पर मकड़ी, दो हाथी दांत, और पांच सिर वाला सर्प दर्शाया गया है, जो उनकी भक्ति का प्रतीक है।

एक अन्य कथा भी है जिसके अनुसार शिकारी कन्नप्पा ने शिवलिंग से रक्त बहता देख अपनी आंखें अर्पित कर दीं। उनकी इस निष्ठा से शिव ने उनकी आंखें लौटाईं और मोक्ष दिया। इसी तरह, पार्वती माता एक श्राप से मुक्ति के लिए यहां तप की थीं और ‘ज्ञान प्रसुनांबिका देवी’ के रूप में पूजी गईं। घनकाला नामक भूतनी ने भी भैरव मंत्र का जाप कर यहां पर साधना की थी।

मंदिर का आंतरिक हिस्सा 5वीं सदी में पल्लव काल में बना, जबकि मुख्य संरचना और गोपुरम 11वीं सदी में चोल सम्राट राजेंद्र चोल प्रथम ने बनवाए। 16वीं सदी में विजयनगर साम्राज्य ने 120 मीटर ऊंचा राजगोपुरम बनवाया, जो द्रविड़ वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है। मंदिर की दीवारों पर चोल शासकों की नक्काशी और 1516 में विजयनगर सम्राट कृष्णदेवराय द्वारा बनवाया गया गोपुरम इसकी ऐतिहासिकता को दिखाता है।

श्रीकालहस्ती पंचभूत स्थलों में से एक है, जहां शिव वायु लिंग (हवा) के रूप में पूजे जाते हैं। इसे ‘दक्षिण का कैलाश’ या ‘दक्षिण की काशी’ कहा जाता है। यह मंदिर राहु-केतु पूजा के लिए भी प्रसिद्ध है, जो ज्योतिषीय दोषों को दूर करती है। यह एकमात्र मंदिर है जो सूर्य और चंद्र ग्रहण के दौरान भी खुला रहता है।

मंदिर के आसपास श्री सुब्रह्मण्य स्वामी मंदिर, पुलिकट झील और चंद्रगिरी किला जैसे आकर्षण हैं। सावन के साथ ही महा शिवरात्रि पर हजारों भक्त यहां भक्ति में लीन होते हैं।

 

 

Related posts

Loading...

More from author

Loading...