नई दिल्ली: भारतीय इतिहास में 20 अगस्त 1828 की तारीख उन सुनहरे पन्नों में दर्ज है, जहां से सामाजिक और धार्मिक सुधारों की एक नई धारा प्रवाहित हुई। कोलकाता में इसी दिन राजा राममोहन राय की दूरदर्शी पहल पर 'ब्रह्म समाज' का पहला अधिवेशन हुआ। यह सिर्फ एक सभा नहीं थी, बल्कि एक ऐसी क्रांति की शुरुआत थी जिसने 19वीं सदी के भारत के बंधनों को चुनौती दी और आधुनिक भारत की नींव रखी।
राजा राममोहन राय को आज हम 'आधुनिक भारत का जनक' और 'भारतीय पुनर्जागरण के जनक' कहते हैं। उन्होंने उस समय आवाज उठाई, जब समाज सती प्रथा, बाल विवाह, जातिगत ऊंच-नीच और महिलाओं पर असंख्य सामाजिक बंधनों से जकड़ा हुआ था। उनकी सोच और साहसिक कदमों ने न केवल सती प्रथा के उन्मूलन का मार्ग प्रशस्त किया, बल्कि भारतीय समाज को तार्किकता और शिक्षा की दिशा में मोड़ा।
ब्रह्म समाज की स्थापना दरअसल एक एकेश्वरवादी आंदोलन थी, जिसने मूर्ति पूजा, अंधविश्वास और कर्मकांडों को अस्वीकार कर एक सर्वोच्च ईश्वर की उपासना पर बल दिया। यह आंदोलन सिर्फ धार्मिक सुधार तक सीमित नहीं रहा, बल्कि सामाजिक समानता, जाति-विहीन समाज और महिलाओं की शिक्षा व अधिकारों के लिए भी खड़ा हुआ।
इस आंदोलन में द्वारकानाथ टैगोर जैसे प्रगतिशील व्यक्तियों का सहयोग भी रहा। बाद में हेमेंद्रनाथ टैगोर ने 1860 में ब्रह्मो अनुस्ठान प्रकाशित किया, जिसने इसे हिंदू धर्म से औपचारिक रूप से अलग पहचान दी। ब्रह्म समाज ने बंगाल में एक बौद्धिक और सामाजिक पुनर्जागरण की नींव डाली। इस आंदोलन ने जातिवाद और कुलीन ब्राह्मणवाद को सीधी चुनौती दी। यही वह दौर था जब शिक्षा, तर्क और सामाजिक न्याय को धार्मिक कर्मकांडों से ऊपर रखा जाने लगा।
यद्यपि मतभेदों के कारण ब्रह्म समाज बाद में कई हिस्सों में बंट गया- आदि ब्रह्म समाज, भारतीय ब्रह्म समाज और साधारण ब्रह्म समाज- लेकिन इसके मूल सिद्धांत कभी नहीं मरे। एकेश्वरवाद, मानव समानता, स्त्री अधिकार, शिक्षा और अंधविश्वास का विरोध आज भी इसे प्रासंगिक बनाए रखते हैं।
राजा राममोहन राय और ब्रह्म समाज की विरासत आज भी उतनी ही जीवंत है। उन्होंने जो राह दिखाई, उसी पर चलकर भारत ने सामाजिक सुधार, शिक्षा और लोकतांत्रिक मूल्यों को अपनाया। उनके प्रयासों ने ही आने वाली पीढ़ियों को यह समझाया कि धर्म का सार तर्क, आस्था और मानवता है, न कि अंधविश्वास और रूढ़िवादिता।