नई दिल्ली: जिंदगी की जद्दोजहद से जूझ रहे आज के युवाओं को साहित्य भी रास्ता दिखा सकता है। कुंवर नारायण की 'अंतिम ऊंचाई' और 'अबकी बार लौटा' कविताएं सिर्फ चंद शब्द नहीं हैं, यह हमारी जिंदगी के सपनों को पाने की अंधाधुंध दौड़ में ठहरकर हमें जो हासिल है, उसके जश्न को मनाने की भी सीख देती हैं।
भारतीय ज्ञानपीठ से सम्मानित कुंवर नारायण की कविता 'अंतिम ऊंचाई' एक इंसान को अंतिम समय तक हार नहीं मानने के लिए प्रेरित करती है, तो दूसरी तरफ 'अबकी बार लौटा' एक इंसान को 'कंप्लीट' बनने के रास्ते पर आगे बढ़ाती है।
कुंवर नारायण की रचनाएं न केवल काव्य की सीमाओं को तोड़ती हैं, बल्कि जीवन के संघर्षों, अस्तित्व की जटिलताओं और सामाजिक चेतना को उजागर करती हैं। कुंवर नारायण ही हैं, जो अपनी लेखनी के जरिए उन पहलुओं को छूने की कोशिश करते हैं, जो इंसान के इर्द-गिर्द घूमती हैं।
कुंवर लिखते हैं, 'कितना स्पष्ट होता आगे बढ़ते जाने का मतलब, अगर दसों दिशाएं हमारे सामने होतीं, हमारे चारों ओर नहीं। कितना आसान होता चलते चले जाना, यदि केवल हम चलते होते, बाकी सब रुका होता।'
वह धर्म पर तो लिखते ही थे, साथ ही वह भाषा के महत्व को भी बताते थे। कुंवर नारायण लिखते हैं, 'भाषा का बहुस्तरीय होना उसकी जागरूकता की निशानी है।' उनके लिखने का यही अंदाज हिंदी के कवियों में उन्हें सर्वश्रेष्ठ में से एक बनाता है।
जितना उन्हें कविताओं में रूचि थी, उतना ही वे इतिहास, पुरातत्व, सिनेमा, कला, क्लासिकल साहित्य, आधुनिक चिंतन, समकालीन विश्व साहित्य और संस्कृति के भी जानकार थे। उनकी कविताएं परंपरा, मानवीय आशा-निराशा और सुख-दुख के समागम से भरी होती थीं।
वे अपनी कविता में लिखते हैं, 'अबकी बार लौटा तो बृहत्तर लौटूंगा, चेहरे पर लगाए नोकदार मूंछें नहीं, कमर में बांधे लोहे की पूंछे नहीं, जगह दूंगा साथ चल रहे लोगों को, तरेर कर न देखूंगा उन्हें, भूखी शेर-आंखों से, अबकी अगर लौटा तो, मनुष्यतर लौटूंगा।'
हिंदी साहित्य के एक प्रमुख कवि होने के साथ-साथ कुंवर नारायण आलोचक और अनुवादक भी थे, जिन्हें 'नई कविता' आंदोलन का सशक्त हस्ताक्षर माना जाता है।
यूपी के फैजाबाद में 19 सितंबर, 1927 को पैदा हुए कुंवर नारायण एक समृद्ध परिवार से ताल्लुक रखते थे। उन पर आचार्य नरेंद्र देव, आचार्य कृपलानी और राम मनोहर लोहिया जैसी महान शख्सियतों का काफी प्रभाव पड़ा। यहीं से उनकी रुचि साहित्य में बढ़ी और इसके बाद उनकी काव्य यात्रा का 'चक्रव्यूह' से आगाज हुआ। उन्होंने खुद को हिंदी के मशहूर कवि के तौर पर स्थापित किया।
कुंवर नारायण हिंदी साहित्य के उन कवियों में शामिल थे, जिन्होंने अपनी लेखनी के जरिए हिंदी के पाठकों में एक नई तरह की समझ पैदा की। उनकी कविताओं को अज्ञेय द्वारा संपादित 'तीसरा सप्तक' में शामिल किया गया था।
इतना ही नहीं, हिंदी साहित्य में योगदान के लिए कुंवर नारायण को साल 1995 में साहित्य अकादमी पुरस्कार और साल 2008 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया। उन्हें साल 2009 में 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया गया।
कुंवर नारायण ने अपनी कविताओं के जरिए लोगों के दिलों में खास जगह बनाई। उनकी लिखी 'चक्रव्यूह' (1956), 'परिवेश: हम तुम' (1961), 'अपने सामने' (1979), 'कोई दूसरा नहीं' (1993), 'इन दिनों' (2002), 'हाशिए का गवाह' (2009) जैसे कविता-संग्रह को भी खूब सराहा गया।
कुंवर ने हिंदी कविता को मिथक, इतिहास और वर्तमान के माध्यम से एक नया नजरिया प्रदान किया। उनकी कविताएं व्यक्ति-अस्मिता, सामाजिक चेतना और जीवन पर केंद्रित हैं, जो पाठकों में गहन चिंतन जगाती हैं। 15 नवंबर 2017, ये वो तारीख थी, जब कुंवर नारायण ने दुनिया को अलविदा कह दिया।