नई दिल्ली: जब लड़कियों को खिलौनों से खेलना सिखाया जाता था, वो गिल्ली-डंडा लेकर मैदान में उतरती थी। जब उन्हें पर्दे में रखने की हिदायत दी जाती थी, वो खुले आसमान को अपनी किताब बना लेती थी। जब समाज ने कहा कि औरत का धर्म है सहना, वो बोली-'क्यों?' वो सिर्फ लिखती नहीं थी, जीती थी, हर उस सवाल को, जिससे समाज ने आंखें मूंद रखी थीं। उसके शब्द चुप नहीं थे, उसके वाक्य झिझकते नहीं थे। उसके किरदार काल्पनिक नहीं थे, वे उन आंगनों, रसोईघरों और उन दुपट्टों के पीछे की औरतें थीं जिनकी सांसें अक्सर दबा दी जाती थीं।
उसकी कहानियां उस वक्त आईं जब सच बोलना बगावत समझा जाता था। उसने बगावत को अपना दस्तूर बनाया। उसने नारी को देवी नहीं, इंसान कहा- जिसे पूजना नहीं, समझना चाहिए। उसकी एक कहानी ने अदालत के दरवाज़े तक खटखटाए, लेकिन उनकी कलम न रुकी, न झुकी। वो औरत कोई क्रांति नहीं चाहती थी. वो सिर्फ उस सच को लिखना चाहती थी, जिसे सबने अनसुना कर दिया था। जब वो चली गई, तो उर्दू भाषा की एक आवाज हमेशा के लिए खामोश हो गई। लेकिन, उसकी कहानियां अब भी कानों में फुसफुसा कर कहती हैं, "जो तुम महसूस करते हो, उसे लिखने से डरो मत।"
आज उसी महिला का जन्मदिन है, नाम है इस्मत चुगताई। एक ऐसी लेखिका की जयंती, जिसने शब्दों को हथियार बनाकर समाज के बनावटी पर्दों को चीर दिया। इस्मत सिर्फ नाम नहीं, एक आंदोलन थीं, अदब की जमीन पर खड़ी एक बागी औरत, जिसने इंसान की पहचान के लिए जिंदगी भर जद्दोजहद की।
इस्मत चुगताई का जन्म 21 अगस्त 1915 को उत्तर प्रदेश के बदायूं में हुआ था। नौ भाई-बहनों में वह सबसे छोटी, इस्मत को परवरिश के दौरान लड़कियों से ज्यादा लड़कों का साथ मिला। लड़कों के साथ खेलना-कूदना, पेड़ों पर चढ़ना, फुटबॉल और गिल्ली डंडा खेलना, यह सब उस दौर की एक ‘लड़की’ के लिए सामाजिक अपवाद था, लेकिन इस्मत के लिए यही आजादी की पहली सीढ़ी थी। समाज ने उन्हें लड़की की तरह जीने को कहा, लेकिन उन्होंने भाईयों के जैसे जीना चुना। एक तरह से कहा जा सकता है कि इस्मत का पहला विद्रोह उनके बचपन से ही शुरू हो गया था।
जब घरवालों ने उनकी पढ़ाई रोकने की कोशिश की, तो इस्मत ने धमकी देते हुए कहा कि अगर पढ़ने नहीं दिया तो मैं ईसाई बनकर मिशन स्कूल में दाखिला ले लूंगी। नतीजा यह हुआ कि उन्हें अलीगढ़ में पढ़ने की इजाजत मिल गई। फिर वह लखनऊ के इसाबेला थोबर्न कॉलेज पहुंचीं, जहां अंग्रेजी, राजनीति और अर्थशास्त्र जैसे विषयों में पढ़ाई कर, उन्होंने अपनी सोच को समाज के दायरों से परे विस्तार दिया।
लखनऊ में ही उनकी मुलाकात डॉक्टर रशीद जहां से हुई, जिनसे उन्होंने नारीवादी और कम्युनिस्ट विचारों की समझ पाई। रशीद जहां 'अंगारे' कहानी-संग्रह की लेखिका थीं, जिसे ब्रिटिश हुकूमत ने प्रतिबंधित कर दिया था। इस्मत ने उन्हें अपना गुरु माना। उन्हीं से उन्होंने जाना कि 'इश्क दिल-ओ-दिमाग की मजबूती है, जी का रोग नहीं'। और यहीं से उनकी कहानियों में औरत अबला नहीं, सवाल उठाने वाली एक सोच बन गई। 1941 में छपी कहानी 'लिहाफ' ने पूरे अदबी जगत में भूचाल ला दिया। एक मुस्लिम नवाब घराने की महिला बेगम जान और उसकी नौकरानी के बीच समलैंगिक रिश्ते पर लिखी गई इस कहानी को अश्लील कहा गया। इस्मत पर लाहौर हाईकोर्ट में मुकदमा चला। लेकिन, उन्होंने न रचना वापस ली, न विचार बदला। यह लड़ाई इस बात की थी कि एक औरत की भावनात्मक और शारीरिक जरूरतें सिर्फ 'लज्जा' के पर्दे में नहीं ढकी जा सकतीं। 'लिहाफ' ने इस्मत को बदनाम किया, लेकिन अमर भी। इस एक कहानी ने समाज के दोहरे मापदंडों को आइना दिखा दिया।
इस्मत की कहानियों में जिस्म की भूख को नकारा नहीं गया, उसे इंसानी जरूरत माना गया। उन्होंने बार-बार लिखा कि औरत महज चूमने या पूजने की वस्तु नहीं, एक इंसान है। उनकी कहानियों में दुपट्टे की सरसराहट और चूड़ियों की खनक के पीछे एक दमदार सोच वाली औरत रहती है, जो सोचती है, लड़ती है, प्यार करती है और सवाल उठाती है। इस्मत ने न सिर्फ साहित्य, बल्कि बॉलीवुड में भी अपनी गहरी छाप छोड़ी। पति शाहिद लतीफ के साथ मिलकर उन्होंने जिद्दी, आरजू, सोने की चिड़िया जैसी फिल्मों की पटकथाएं लिखीं। गर्म हवा जैसी कालजयी फिल्म उनकी कहानी पर आधारित थी। श्याम बेनेगल की जुनून में उन्होंने न सिर्फ संवाद लिखे बल्कि एक छोटी सी भूमिका भी निभाई।
उनका उपन्यास टेढ़ी लकीर उनकी आत्मा का आईना है, एक ऐसी लड़की की कहानी जो सवाल पूछती है, झगड़ती है, प्यार करती है, और जिंदगी से समझौता नहीं करती। उन्होंने इसे मात्र 7-8 दिनों में गर्भवती और बीमार अवस्था में लिखा था। यह उपन्यास उर्दू साहित्य की धरोहर बन चुका है।
इस्मत का जीवन एक ऐसे विचार का नाम है जो कहता है, 'मैं गृहस्थ औरत नहीं बन सकती। लेकिन अगर किसी ने मुझे बराबरी का दर्जा दिया, तो मैं उसके साथ रहना पसंद करूंगी।' शाहिद लतीफ ने उन्हें वह बराबरी दी। इस्मत को पद्मश्री, साहित्य अकादेमी, इकबाल सम्मान, मखदूम अवॉर्ड जैसे कई सम्मानों से नवाजा गया। 24 अक्टूबर 1991 को जब उन्होंने आखिरी सांस ली, तो उनकी वसीयत के अनुसार मुंबई के चन्दनवाड़ी श्मशान घाट में अग्नि को समर्पित कर दिया गया। एक मुस्लिम लेखिका का यह फैसला अपने आप में समाज के धार्मिक बंदिशों को चुनौती था।
इस्मत चुगताई ने जो लिखा, वो न उस दौर ने पूरी तरह समझा और न ही हम पूरी तरह समेट पाए। वो नारीवाद थीं, पर पश्चिमी फ्रेम में नहीं। वो अदब थीं, पर महज अलंकार नहीं। उन्होंने लिखा ताकि समाज अपनी आंखें खोले, चुप्पियां टूटें और हर इंसान, खासकर एक औरत अपने वजूद को पहचान सके। इस्मत आज भी हर उस औरत में जिंदा हैं, जो खुद से प्यार करना सीख चुकी है।