नई दिल्ली: सिखों के इतिहास में जब भी निःस्वार्थ सेवा, करुणा और मानवता के अद्भुत उदाहरणों की चर्चा होती है, गुरु हर किशन सिंह जी का नाम श्रद्धा और आदर के साथ लिया जाता है। सिखों के आठवें गुरु, गुरु हर किशन सिंह जी ने महज पांच साल की उम्र में गुरु गद्दी संभाली और अपने छोटे से जीवन में ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया, जिसे आज भी दुनिया श्रद्धा से याद करती है।
7 जुलाई 1656 को पंजाब के कीरतपुर साहिब में जन्मे गुरु हरकिशन सिंह जी, गुरु हर राय जी और माता कृष्ण कौर (सुलक्षणी जी) के छोटे पुत्र थे। वे बचपन से ही शांत, करुणामयी और आध्यात्मिक गुणों से भरपूर थे। उनकी दृष्टि में भेदभाव, जाति-पाति या उम्र का कोई महत्व नहीं था। उनके बड़े भाई राम राय को उनके पिता ने सिख मर्यादा से भटकने के कारण पहले ही गुरु गद्दी से दूर कर दिया था। परिणामस्वरूप, मात्र पांच वर्ष की आयु में गुरु हर राय जी ने अपने छोटे पुत्र हरकिशन को ही अष्टम नानक घोषित किया।
गुरु हरकिशन के गुरु बनने की बात से राम राय इतने आक्रोशित हो उठे कि उन्होंने मुगल सम्राट औरंगजेब से इसकी शिकायत कर दी। औरंगजेब, जो स्वयं धर्म के नाम पर अनेक खेल खेल चुका था, बाल गुरु की लोकप्रियता से चकित और विचलित था। उसने गुरु जी को दिल्ली बुलाने का आदेश दिया, यह देखने के लिए कि इतना छोटा बालक आखिर कैसे लोगों के दिलों पर राज कर रहा है। दिल्ली के राजा जय सिंह को यह कार्य सौंपा गया। पहले तो गुरु जी ने दिल्ली जाने से मना कर दिया, लेकिन जब उनके अनुयायियों और राजा जय सिंह ने बार-बार आग्रह किया, तो उन्होंने इस यात्रा को स्वीकार किया।
दिल्ली पहुंचने पर राजा जय सिंह ने उन्हें अपने बंगले में ठहराया, जो आज का प्रसिद्ध गुरुद्वारा बंगला साहिब है। उस समय दिल्ली में चेचक और हैजे की महामारी फैली हुई थी। उस नन्हें बालक ने अपने छोटे-से हाथों और विशाल हृदय से हर जाति-धर्म के बीमारों की सेवा की। पानी पिलाया, देखभाल की और बिना भेदभाव के हर दुखी को अपनाया। इस सेवा भाव को देखकर स्थानीय मुसलमान उन्हें 'बाला पीर' कहकर सम्मानित करने लगे।
सेवा करते-करते गुरु हरकिशन सिंह जी खुद भी चेचक की चपेट में आ गए। कई दिनों तक वे तेज बुखार में तपते रहे। अंत समय में उन्होंने अपनी माता को पास बुलाया और कहा, "अब मेरा समय निकट है, मेरा उत्तराधिकारी 'बाबा बकाला' में मिलेगा।" यह संकेत था कि अगले गुरु, गुरु तेग बहादुर होंगे, जो उस समय पंजाब के बकाला गांव में रह रहे थे।
3 अप्रैल 1664 को महज आठ वर्ष की आयु में गुरु हरकिशन सिंह जी ने "वाहेगुरु" का जाप करते हुए इस संसार से विदा ली।
जहां गुरु हरकिशन सिंह जी ने अंतिम समय बिताया, वही स्थान आज गुरुद्वारा बंगला साहिब के रूप में संसार भर में श्रद्धा का केंद्र बना हुआ है। इस गुरुद्वारे का सरोवर आज भी श्रद्धालुओं के लिए पवित्र माना जाता है।