Rajagopalachari Legacy : वह राजनीतिज्ञ, जिसने 1942 में ही कर दी थी विभाजन की भविष्यवाणी

चक्रवर्ती राजगोपालाचारी: राजनीति, नीतियों और दूरदर्शिता की अनोखी विरासत
आधुनिक भारत के चाणक्य: वह राजनीतिज्ञ, जिसने 1942 में ही कर दी थी विभाजन की भविष्यवाणी

नई दिल्ली: भारतीय इतिहास की गाथा में कुछ ऐसे व्यक्तित्व हुए हैं जिनकी दूरदर्शिता, त्याग और असाधारण तर्क शक्ति उन्हें भीड़ से अलग खड़ा करती है। 'राजाजी' के नाम से मशहूर चक्रवर्ती राजगोपालाचारी उन्हीं में से एक थे।

10 दिसंबर 1878 को जन्मे चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को 'आधुनिक भारत के चाणक्य' की उपाधि यूं ही नहीं दी गई थी। उनका राजनीतिक और रणनीतिक कौशल इतनी तीक्ष्ण था कि जब देश के बड़े-बड़े नेता वैचारिक आदर्शवाद की जमीन पर खड़े थे, तब राजाजी ने कड़वे यथार्थ को स्वीकार करने का साहस दिखाया। 1947 में जो हुआ, राजाजी ने उसकी भविष्यवाणी पांच साल पहले 1942 में ही कर दी थी।

दरअसल, 1942 का साल था और शहर था इलाहाबाद। कांग्रेस के बड़े नेता एक कमरे में बैठक कर रहे थे। बाहर दुनिया युद्ध की आग में जल रही थी और अंदर जिन्ना के पाकिस्तान की मांग और बढ़ते साम्प्रदायिक तनाव पर बहस तेज थी। तभी चुपचाप बैठे राजगोपालाचारी उठे और कमरा शांत हो गया। उन्होंने धीमे, लेकिन दृढ़ स्वर में कहा, "विभाजन अब किसी के रोकने से नहीं रुकेगा।"

एक पल को सन्नाटा छा गया। नेताओं ने आपत्ति जताई और गांधी जी ने भी असहमति व्यक्त की। सबको लगा, राजाजी निराशा में डूब गए हैं, लेकिन वह इतिहास की करवट भांप चुके थे।

समय बीतता गया। कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच की खाई और गहरी होती गई। 1944 में राजगोपालाचारी ने समाधान ढूंढते हुए एक प्रस्ताव रखा, जिसे सीआर फॉर्मूला कहा गया, जो भविष्य की संभावित राह दिखाता था। हालांकि, 1947 के कड़वे सच ने राजगोपालाचारी की वर्षों पहले की गई भविष्यवाणी को सही साबित कर दिया।

राजाजी का करियर तर्क और न्याय की नींव पर टिका था। मद्रास प्रेसीडेंसी के थोरापल्ली गांव में जन्मे और मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज से विधि (कानून) की शिक्षा पूरी करने के बाद, उन्होंने 1900 में सलेम में एक क्रिमिनल लॉयर के रूप में वकालत शुरू की। उनकी योग्यता ने उन्हें जल्द ही सेलम के प्रमुख वकीलों की श्रेणी में खड़ा कर दिया। कानूनी तर्क और साक्ष्य-आधारित निर्णय लेने की यह क्षमता ही उनके बाद के राजनीतिक करियर को आकार देने वाली थी।

एक सफल वकील के रूप में स्थापित होने के बावजूद, उनकी आत्मा समाज सेवा और राजनीति में थी। 1917 से 1919 तक वे सलेम नगरपालिका के अध्यक्ष रहे, जहां उन्होंने सहकारी बैंक की स्थापना और सामाजिक सुधारों जैसे महत्वपूर्ण कार्य किए।

फिर आया 1919 का निर्णायक मोड़, जब महात्मा गांधी ने स्वाधीनता संग्राम के लिए आह्वान किया। तब राजाजी ने एक सफल क्रिमिनल लॉयर के रूप में अपनी वकालत को तत्काल त्याग दिया।

गांधी जी के नैतिक आंदोलन के सक्रिय सदस्य के रूप में राजाजी ने 1930 में वेदरनयम में नमक कानून तोड़ा और जेल गए। उन्होंने दलितों के लिए मंदिर प्रवेश सुनिश्चित कराने और 'एग्रीकल्चर डेट रिलीफ एक्ट' जैसे सामाजिक सुधारों पर भी काम किया।

1937 में मद्रास प्रांत के मुख्यमंत्री (तत्कालीन प्रधान) के रूप में उनका पहला कार्यकाल दूरगामी निर्णयों से भरा था। यहां उनकी एक विवादास्पद पहल गैर-हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी की अनिवार्य शिक्षा लागू करना था, जिसे उन्होंने राष्ट्रीय एकता के लिए एकमात्र सक्षम भाषा मानते हुए लागू किया।

आजादी के बाद, उनकी संवैधानिक विशेषज्ञता ने उन्हें देश के सर्वोच्च प्रशासनिक पदों पर पहुंचाया। लॉर्ड माउंटबेटन के जाने के बाद, वे स्वतंत्र भारत के पहले और अंतिम भारतीय गवर्नर-जनरल (1948-1950) बने और बाद में केंद्रीय गृह मंत्री (1950) के रूप में कार्य किया। राष्ट्र को दी गई उनकी सेवाओं के लिए उन्हें 1954 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया था।

सत्ता के शिखर से उतरने के बाद, राजाजी ने अपना अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण वैचारिक युद्ध शुरू किया। 1950 के दशक में, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समाजवादी विचारों और योजना आयोग द्वारा संचालित पंचवर्षीय योजनाओं से उनकी वैचारिक खाई गहरी होती गई। राजाजी ने महसूस किया कि अत्यधिक सरकारी हस्तक्षेप और 'लाइसेंस-परमिट राज' व्यक्तिगत स्वतंत्रता को नष्ट कर देगा और भ्रष्टाचार को जन्म देगा।

इस वैचारिक असहमति के कारण, उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और अगस्त 1959 में स्वतंत्र पार्टी की स्थापना की। यह भारतीय राजनीति में आर्थिक उदारवाद और दक्षिणपंथी, गैर-सांप्रदायिक सोच की पहली मजबूत अभिव्यक्ति थी। उनका विरोध केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि शासन के सिद्धांतों पर आधारित था, जिसमें वे मुक्त अर्थव्यवस्था और निजी क्षेत्र पर सरकारी नियंत्रण को समाप्त करने की वकालत कर रहे थे। एक तरह से, स्वतंत्र पार्टी ने 1991 के उदारीकरण के लिए वैचारिक जमीन तैयार की थी।

राजाजी की प्रतिभा केवल राजनीति और कानून तक सीमित नहीं थी। वह एक उच्च कोटि के विद्वान और लेखक भी थे। उनका साहित्यिक योगदान भारतीय महाकाव्यों और हिंदू दर्शन के सरलीकरण पर केंद्रित है।

उनके सबसे प्रसिद्ध कार्यों में रामायण का तमिल रूपांतरण, 'चक्रवर्ति तिरुमगन' शामिल है, जिसके लिए उन्हें 1958 में तमिल भाषा में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। इसके अलावा, उन्होंने महाभारत का एक प्रामाणिक संस्करण, 'महाभारत कथा', भी लिखा।

चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का जीवन एक वकील के तर्क, एक राजनीतिज्ञ की दूरदर्शिता, एक लेखक के ज्ञान और एक प्रशासक की दक्षता का अनूठा संश्लेषण था। उन्होंने निडरता, शुद्धता और स्वतंत्र सोच के साथ राजनीति की।

1972 को भारत के अंतिम और एकमात्र भारतीय गवर्नर-जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का मद्रास में निधन हो गया। वह स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं की उस पीढ़ी के अंतिम महत्वपूर्ण दार्शनिक-राजनीतिज्ञ थे, जिन्होंने चाणक्य की तरह, सत्ता और नैतिकता के बीच संतुलन खोजने का प्रयास किया। राजाजी की विरासत आज भी हमें याद दिलाती है कि बौद्धिक शक्ति और नैतिक आचरण राजनीति में विशिष्टता अर्जित करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण गुण हैं।

--आईएएनएस

 

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