नई दिल्ली: जाति जनगणना वह प्रक्रिया है जिसमें देश की जनसंख्या के प्रत्येक व्यक्ति की जातिगत पहचान दर्ज की जाती है। भारत जैसे देश में, जहां जाति संरचना सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन को गहराई से प्रभावित करती है, यह जानकारी नीतियों के निर्माण, आरक्षण के निर्धारण, और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है।
जनगणना तो हर 10 साल में होती है, लेकिन उसमें जाति आधारित विवरण केवल अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के लिए ही दर्ज किए जाते हैं। अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और सामान्य वर्ग की जातियों का विवरण सरकार पिछले कई दशकों से दर्ज नहीं कर रही थी।
आखिरी बार जाति जनगणना कब हुई थी?
ब्रिटिश काल में: 1931 की जनगणना अंतिम पूर्ण जाति-आधारित जनगणना थी जिसमें सभी जातियों का विवरण दर्ज किया गया था। इसके बाद स्वतंत्र भारत में 1951 से लेकर अब तक केवल एससी और एसटी की गणना होती रही है। 2011 में एक सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (एसईसीसी) की गई थी, लेकिन उसमें ओबीसी के आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए थे।
अब इसकी जरूरत क्यों पड़ी?
इस संदर्भ में सबसे पहला प्रमुख कारण राजनीतिक माना जा रहा है, जिसके संदर्भ में बताते चलें कि 2024 के लोकसभा चुनाव में ओबीसी, एससी और एसटी वोट बैंक निर्णायक साबित हुआ, जिससे बीजेपी को पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाया। कांग्रेस और विपक्ष ने जनसंख्या के अनुसार भागीदारी की मांग को जोर-शोर से उठाया और जाति जनगणना को मुख्य चुनावी मुद्दा बनाया। यहां अब बीजेपी ने बिहार विधानसभा चुनाव को देखते हुए पहले जाति जनगणना की घोषणा करके राजनीतिक संतुलन साधने की कोशिश की है।
नीति निर्धारण की आवश्यकता
देश में वर्तमान आरक्षण नीति 1931 के आंकड़ों पर आधारित है, जो अब समय और सामाजिक परिवर्तन के लिहाज से अप्रासंगिक हो चुके हैं। नई जाति जनगणना से यह स्पष्ट होगा कि वर्तमान में कौन-से वर्ग कितनी आबादी में हैं, और उन्हें मिलने वाला राजनीतिक प्रतिनिधित्व और आरक्षण कितना न्यायसंगत है।
सामाजिक न्याय और योजनाओं का लक्ष्यीकरण
सरकार की कई योजनाएँ पिछड़ेपन के आधार पर तय की जाती हैं। जाति आधारित डेटा से यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि सच में वंचित वर्गों तक योजनाओं का लाभ पहुंचे। यह डेटा शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, और आय स्तरों में असमानताओं को भी उजागर करेगा।
इस प्रकार जाति जनगणना केवल आंकड़ों का संग्रह नहीं है, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र की संरचना को पुनर्परिभाषित करने वाला कदम है। यह सामाजिक न्याय की दिशा में एक अवसर है, लेकिन इसके साथ राजनीतिक जटिलताएं और सामाजिक तनाव भी जुड़े हुए हैं। यदि इसे पारदर्शिता, निष्पक्षता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संपन्न किया जाए, तो यह देश की समावेशी विकास यात्रा में एक ऐतिहासिक पड़ाव बन सकता है।