नई दिल्ली: भारत पर अरबी भाषा में किसी पुस्तक का होना साहित्य-संसार में एक अनोखी और अत्यंत असंगत बात है। यह देखकर बड़ा आश्चर्य होता है कि एक विदेशी लेखक ने उदार विचार रखे कि हिंदुओं को अपने अध्ययन का प्रिय विषय बनाकर उन पर एक पुस्तकें लिखीं। बात कर रहे हैं एक फारसी विद्वान, धर्मज्ञ और विचारक अलबरूनी की।
अलबरूनी का जन्म सन 973 ईसवी में ख्वारिज्म (वर्तमान उज्बेकिस्तान) में हुआ। उन्हें बचपन से ही अरबी और फारसी भाषाओं पर पूरी तरह अधिकार प्राप्त था। उन्होंने कुरान, व्याकरण, इस्लामी धर्मशास्त्र और कानून की औपचारिक शिक्षा ली। साथ ही, यूनानी विचारधारा पर आधारित गैर-अरबी विषयों जैसे खगोल विज्ञान, गणित और चिकित्सा शास्त्र का भी गहन अध्ययन किया।
अलबरूनी को अपना पहला सरकारी पद ख्वारिज्म के अफरेग शासक के शासनकाल में खगोलशास्त्री के रूप में मिला था। अफरेग उस समय ख्वारिज्म की राजधानी काथ के शासक थे, यानी वहीं अलबरूनी का बचपन और प्रारंभिक जीवन बीता था। अलबरूनी को शुरुआती जीवन में ही युद्ध और निर्वासन का सामना करना पड़ा।
इस्लाम की शासक प्रवृत्ति का परिचय उस मुसलमान बादशाह के कार्यों से ही भली भांति मिल जाता है, जिसके शासन काल में अलबरूनी ने पुस्तक लिखी। अपने जीवनकाल में अलबरूनी ने 140 किताबें लिखी, जिनमें 'किताब-उल-हिंद' भी शामिल है, जिसमें भारतीय संस्कृति और समाज का विस्तृत वर्णन है।
भारतीय इतिहास में महमूद गजनवी को सिर्फ मंदिरों और मूर्तियों को तोड़ने वाले के रूप में दिखाया जाता है। मगर, यह भी सच है कि उसी के राज में अलबरूनी नाम का एक शांत और विद्वान व्यक्ति मौजूद था, जिन्होंने हिंदुओं की संस्कृति और संस्कृत साहित्य का अध्ययन करने और संस्कृत की किताबों को अरबी में अनुवाद करने के लिए पूरी लगन से काम किया। इस्लाम की श्रेष्ठता पर पूर्ण विश्वास रखते हुए भी वह भारतीय रचनाओं (साहित्य और कलाकारी) की दिल खोलकर तारीफ करता था।
अलबरूनी ने भारत में आकर एक वैदेशिक सभ्यता को पाया जो बड़ी विचित्र और हैरान करने वाली थी, लेकिन इस सभ्यता को भी विदेशी आक्रांता हड़पना चाहते थे। अलबरूनी का समय, अर्थात गजनी के महमूद का काल, भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता का अंतिम काल था। महमूद के आने से पहले भी, विदेशी हमलावरों ने भारत के कई हिस्सों को जीता था, लेकिन वे भारतीय समाज का हिस्सा बनकर रह गए। जिस भारत का अलबेरुनी ने चित्र खींचा है, वह उस समय का भारत था, जब उसका राष्ट्रीय अस्तित्व मिटाने की कोशिश की जा रही थी। उसकी सभ्यता उस समय संस्कृति वैदिक थी।
अलबरूनी ने केवल काबुल नदी की घाटी और पंजाब ही देखे थे। वह स्वयं लिखते हैं कि "मैं हिंदुओं के देश में इन स्थानों से आगे नहीं गया।" इसलिए यह स्पष्ट है कि उन्होंने सिंध और कश्मीर नहीं देखे थे। दक्षिण-पश्चिमी सीमा पर उन्होंने दो कोट देखे थे। एक का नाम वह राजगिरि और दूसरे का लहूर लिखते हैं। हालांकि, ठीक पता नहीं चलता कि ये स्थान कहां थे।
अलबरूनी ने जो कुछ यहां देखा और सुना, उसी के आधार पर अपना वृत्तान्त लिख डाला। संतराम वी. ने 'अलबरूनी का भारत' में इस बारे में विस्तार से उल्लेख किया है। अगर मुस्लिम समुदाय के लोग अलबरूनी की पुस्तकों पर गर्व करते हैं, तो हिंदू भी इसे विशेष मान सकते हैं, क्योंकि एक सच्चा विद्वान उनके पूर्वजों की उस समय की सभ्यता का पूरा हाल लिख गया है।
हो सकता है कि कुछ लोग किताब की कई बातों से सहमत न हों, और उसकी कुछ टिप्पणियां उनके दिल को चोट पहुंचाएं, लेकिन उन्हें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उसका उद्देश्य ऐतिहासिक तथ्यों को जानना और उन्हें उनके यथार्थ रूप में प्रकट करना है। उन्हें इस बात को भी भूल नहीं जाना चाहिए कि कई अन्य स्थलों पर अलबरूनी ने मुक्तकंठ से उनकी प्रशंसा भी की।
अलबेरूनी की मृत्यु लगभग 1048 ईस्वी में 13 दिसंबर को गजनी में हुई थी।
--आईएएनएस
