इम्पोस्टर सिंड्रोम: जब अपनी ही योग्यता पर होता है शक, उपलब्धियों को मान लेते हैं संयोग

नई दिल्ली, 4 अक्टूबर (आईएएनएस)। क्या आपने कभी ऐसा महसूस किया है कि आपकी उपलब्धियां बस किसी किस्मत या अवसर का नतीजा हैं और असल में आप उतने काबिल नहीं हैं जितना लोग सोचते हैं? अगर हां, तो शायद आप 'इम्पोस्टर सिंड्रोम' से गुजर रहे हैं।

इम्पोस्टर सिंड्रोम शब्द 1978 में अमेरिकी मनोवैज्ञानिकों पाउलीन क्लांस और सुजैन इम्स ने गढ़ा था। उन्होंने पाया कि कई अचीवर (ज्यादातर महिलाएं) अपनी उपलब्धियों को मेहनत या योग्यता का परिणाम मानने के बजाय, मात्र संयोग या दूसरों की मदद का नतीजा मानती थीं।

हालांकि यह अवधारणा 1978 में प्रस्तुत की गई थी, 2021 के एक अध्ययन में पाया गया कि लगभग 82 फीसदी लोग कभी न कभी 'इम्पोस्टर' सिंड्रोम का अनुभव करते हैं। यह अध्ययन इस मानसिक स्थिति की व्यापकता को दर्शाता है, जो अचीवर्स में सामान्य है।

इम्पोस्टर सिंड्रोम एक मनोवैज्ञानिक परिस्थिति है जिसमें पीड़ित “खुद को धोखेबाज” मानने लगता है। यह एक मानसिक अवस्था है जिसमें व्यक्ति अपनी सफलता को अपनी मेहनत या योग्यता का परिणाम नहीं मानता। इसके बजाय, वह सोचता है कि वह “बाहर से देखे जाने वाले” मानदंडों पर खरा नहीं उतरता और कोई भी जल्द ही उसकी असली पहचान का पता लगा लेगा।

अचरज की बात यह है कि इस सिंड्रोम से कई बड़े नामी लोग भी जूझ चुके हैं। उदाहरण के लिए, अभिनेत्री 'मेरील स्ट्रीप' ने स्वीकार किया कि उन्होंने कई वर्षों तक महसूस किया कि उन्हें उनके पुरस्कारों का हक नहीं है। इसी तरह, संगीतकार लुडेविग वैन बीथोवेन के जीवन में भी यह भाव देखा गया कि वह वह डिजर्व नहीं करते थे जो उन्हें मिला।

भारत में भी सेल्फ डाउट करने वालों की कमी नहीं है। इस फेहरिस्त में अनन्या पांडे और सान्या मल्होत्रा का नाम शामिल है। दोनों ने माना था कि अपनी योग्यता पर हमेशा संशय रहता है। पर्दे पर जो देखती हैं लगता है इसमें वो नहीं हैं। सान्या ने ये भी कहा था कि उन्होंने थेरेपी ली जिससे उन्हें काफी फायदा हुआ।

--आईएएनएस

केआर/

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