'एनसीडी' ऐसी बीमारियां हैं जो दिखती नहीं, लेकिन मारती जरूर हैं: डब्ल्यूएचओ ने चेताया

नई दिल्ली, 20 सितंबर (आईएएनएस)। आजकल जिंदगी की रफ्तार इतनी तेज हो गई है कि न किसी के पास खाने का वक्त है, न सोने की फिक्र और न अपनों संग बैठकर दो पल बिताने की सुध! लोग दिन भर की थकान को कोल्ड ड्रिंक से धोते हैं, स्ट्रेस को सिगरेट के छल्लों में उड़ाते हैं या शराब में घोल कर पी जाते हैं। ऊपर से काम का प्रेशर, सोशल मीडिया की दौड़ और रिश्तों की उलझनें। इसी का नतीजा है कि कुछ ऐसी बीमारियां शरीर में प्रवेश कर रही हैं जिनके लक्षण प्रत्यक्ष तौर पर दिखते नहीं हैं। बीमारियां जो दिखती नहीं हैं लेकिन भीतर ही भीतर शरीर को खोखला करती रहती हैं। इन्हें ही कहा जाता है एनसीडी (नॉन कम्युनिकेबल डिजीज) यानी गैर संचारी रोग।

एनसीडी की फेहरिस्त में दिल की बीमारी, हाई ब्लड प्रेशर, डायबिटीज, कैंसर और मानसिक तनाव शामिल हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की ताजा रिपोर्ट इसकी गंभीरता का आभास कराती है। संगठन ने कहा है कि इन बीमारियों से लड़ाई में दुनियाभर की रफ्तार धीमी पड़ गई है। मतलब साफ है—खतरा अभी टला नहीं है, बल्कि और गहराता जा रहा है।

'सेविंग लाइव्स, स्पेंडिंग लेस,' यानी 'जिंदगियां बचाइए, ज्यादा पैसा मत खर्च कीजिए' शीर्षक से रिपोर्ट तैयार की गई है। और यही इसकी सबसे दिलचस्प बात है। ये बताती है कि इन बीमारियों से लड़ने में भारी-भरकम बजट नहीं चाहिए, बल्कि थोड़ी सी समझदारी भरा निवेश पर्याप्त है।

रिपोर्ट कहती है कि अगर हर देश सिर्फ 3 डॉलर (यानि लगभग 250 रुपए ) प्रति व्यक्ति हर साल इन बीमारियों की रोकथाम और इलाज पर खर्च करे, तो 2030 तक 12 मिलियन (1.2 करोड़) लोगों की जान बचाई जा सकती है। यानि कह सकते हैं कि सिर्फ एक पिज्जा के बराबर पैसे में एक जान!

पर दिक्कत ये है कि बहुत से देश अब इस लड़ाई में ढीले पड़ गए हैं। 2010 से 2019 के बीच अधिकतर देशों ने इन बीमारियों से होने वाली मौतों को कुछ हद तक कम किया था, लेकिन अब हालात फिर बिगड़ रहे हैं। कई जगहों पर तो हालात पहले से भी खराब हो रहे हैं।

सबसे ज्यादा चिंता की बात ये है कि ये बीमारियां गरीब और मिडिल क्लास देशों में ज्यादा कहर ढा रही हैं। हर साल लगभग 75 फीसदी मौतें ऐसे देशों में होती हैं, जहां इलाज महंगा है और जागरूकता की कमी है।

डब्ल्यूएचओ उन कारणों को भी बताता है जिनकी वजह से एनसीडी में इजाफा होता है और मेंटल हेल्थ पर असर पड़ता है। इस रिपोर्ट के मुताबिक चूंकि हमारा लाइफस्टाइल गड़बड़ है—ज्यादा जंक फूड, कम कसरत, नींद की कमी और स्ट्रेस भरी जिंदगी इसका कारण है। डब्ल्यूएचओ साफ कहता है कि इन कंपनियों का असर नीति बनाने वालों पर भी पड़ता है, जो जरूरी कानूनों को पास नहीं होने देते।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक डॉ. टेड्रोस एडनॉम घेब्रेयेसस ने कहा, "गैर-संचारी रोग और मेंटल हेल्थ सिचुएशन साइलेंट किलर हैं, जो हमारे जीवन और इनोवेशन को छीन रहे हैं। हमारे पास जीवन बचाने और पीड़ा कम करने के साधन हैं। डेनमार्क, दक्षिण कोरिया और मोल्दोवा जैसे देश इस दिशा में अग्रणी हैं, जबकि अन्य देश पीछे छूट रहे हैं। एनसीडी के विरुद्ध लड़ाई में निवेश करना केवल एक चतुर अर्थशास्त्र नहीं है—यह समृद्ध समाज की आवश्यकता है।"

डब्ल्यूएचओ कहता है कि अगर सरकारें थोड़ी समझदारी दिखाएं और 'बेस्ट बाइज' (अच्छे खरीद) कॉन्सेप्ट को अपनाएं तो बीमारी पर अंकुश लगाया जा सकता है। इसका अर्थ है कि तंबाकू पर टैक्स बढ़ाया जाए, बच्चों को जंक फूड के विज्ञापन से बचाया जाए, शराब की बिक्री पर कंट्रोल किया जाए, और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को सुलभ बनाया जाए—तो हम इस खतरे को काफी हद तक कम कर सकते हैं।

--आईएएनएस

केआर/

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