हर्षवर्धन पाण्डे
नैनीताल (दैनिक हाक): पिछले कुछ बरस से मौसम का मिजाज लगातार बदलता ही जा रहा है । मौसम किस करवट पूरे विश्व में बदल रहा है यह बीते बरसों में सुनामी, कैटरीना, रीटा, नरगिस ,हुदहुद , यास जैसे भीषण तूफानों की आहट से समझा जा सकता है | पिछले कुछ वर्षो से पूरी दुनिया के तापमान में न केवल वृद्धि हो रही है बल्कि गौमुख , ग्रीनलैंड, आयरलैंड और अन्टार्कटिका में लगातार पिघल रहे ग्लेशियर भी ग्लोबल वार्निंग की आहट को करीब से महसूस करा रहे हैं । इस प्रभाव को हमारा देश भी महसूस कर रहा है । पिछले कुछ समय से यहाँ के मौसम में अप्रत्याशित बदलाव हमें देखने को मिले हैं । असमय वर्षा का होना , सूखा पड़ना, बाढ़ आ जाना , हिमस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाएं आना तो अब आम बात हो गयी है। सुजलाम सुफलाम शस्य श्यामला कही जाने वाली हमारी माटी में कभी इन्द्रदेव महीनों तक अपना कहर बरपाते हैं तो कहीं इन्द्रदेव के दर्शन ही दुर्लभ हो जाते हैं । अब तो आलम ये हो चला है जब गर्मी पड़नी चाहिए तब जाड़ा होता है और जब जाड़ा पड़ना चाहिए तो गर्मी पड़ती है।
आज पूरे विश्व में वन लगातार सिकुड़ रहे हैं तो वहीँ किसानो का भी इस दौर में खेतीबाड़ी से सीधा मोहभंग हो गया है । दुनिया में अधिकांश जगह पर जंगलो को काटकर जैव ईधन जैट्रोफा के उत्पादन के लिए प्रयोग में लाया जा रहा है तो वहीँ पहली बार जंगलो की कमी से वन्य जीवो के आशियाने भी सिकुड़ रहे हैं जो वन्य जीवो की संख्या में आ रही गिरावट के जरिये महसूस की जा सकती है वहीँ औद्योगीकरण की आंधी में कार्बन के कण वैश्विक स्तर पर तबाही का कारण बन रहे हैं तो इससे प्रकृति में एक बड़ा प्राकृतिक असंतुलन पैदा हो गया है। पिछले दिनों दुनिया में अमज़ोन के जंगलों में लगी भीषण आग ने दुनिया के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी । दुनिया का फेफड़ा कहे जानेवाले अमेजन के जंगलों में भीषण आग से पूरी दुनिया का मौसम बदला है । अमेजन के वर्षावनों को दुनिया का फेफड़ा भी कहा जाता है। दरअसल, यह पूरी दुनिया में मौजूद ऑक्सीजन का 20 फीसदी हिस्सा उत्सर्जित करते हैं। ब्राजील के वर्षावनों में पिछले दिनों लगी आग के मद्देनजर हमको यह तो मानना ही पड़ेगा जलवायु परिवर्तन निश्चित रूप से हो रहा है और यह सब ग्लोबल वार्मिंग की आहट है । औद्योगिक क्रांति के बाद जिस तरह से जीवाश्म ईधनों का दोहन हुआ है उससे वायुमंडल में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा में अप्रत्याशित वृद्धि हो गयी है । वायुमंडल में बढ़ रही ग्रीन हाउस गैसों की यही मात्र ही ग्लोबल वार्मिंग के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी है । कार्बन डाई आक्साइड के साथ ही मीथेन , क्लोरो फ्लूरो कार्बन भी जिम्मेदार है जिसमे 5 5 फीसदी कार्बन डाई आक्साइड है ।
जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र की संस्था आईपीसीसी यानी इंटरगर्वमेंटल पैनल ऑफ क्लाइमेट चेंज की रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि 2040 तक दुनिया का तापमान 1.5 डिग्री तक बढ़ जायेगा जिसके भयानक परिणाम सामने आ सकते हैं । इसे रोकने के लिये सभी देशों को ग्रीन हाउस गैसों और कार्बन उत्सर्जन को कम करना होगा। रिपोर्ट में कहा गया है कि बढ़ते तापमान का मौसम और खेती बाड़ी से लेकर समुद्र स्तर के बढ़ने और ग्लेशियरों के पिघलने पर असर पड़ेगा | जलवायु परिवर्तन के चलते सूखा, बाढ़ और अतिवृष्टि जैसी आपदा बढ़ रही हैं । कार्बन उत्सर्जन को रोकने के लिये सौर और पवन ऊर्जा जैसे रास्तों को अपनाने और कोयले के इस्तेमाल को कम करने की ज़रूरत होगी। इससे पहले आई आई पी सी सी की एक रिपोर्ट के अनुसार 2080 तक 3.20 अरब लोगो को पीने का पानी नहीं मिलेगा और लगभग 60 करोड़ लोग भूख से मारे जायेंगे । अगर यह सच साबित हुआ तो यह दुनिया के सामने किसी भीषण संकट से कम नहीं होगा । कार्बन डाई आक्साइड के सबसे बड़े उत्सर्जक अमेरिका ने पहले कई बार क्योटो प्रोटोकोल पर सकारात्मक पहल की बात बड़े बड़े मंचो से दोहराई जरुर है लेकिन आज भी असलियत यह है जब भी इस पर हस्ताक्षर करने की बारी आती है तो वह इससे साफ़ मुकर जाता है । अमरीका के साथ विकसित देशो की बड़ी जमात है , जो किसी भी तरह अपना उत्सर्जन कम करने के पक्ष में नहीं दिखाई देते । विकसित देश अगर यह सब करने को राजी हो जाएँ तो उन्हें अपने जी डी पी के बड़े हिस्से का त्याग करना पड़ेगा जो तकरीबन 5.5 प्रतिशत बैठता है और यह सब दूर की गोटी लगती है । इधर अधिकांश वैज्ञानिको का मानना है कि कारण डाई आक्साइड के उत्सर्जन को कम करने के लिए विकसित देशो को किसी भी तरह फौजी राहत दिलाने के लिए कुछ उपाय तो अब करने ही होंगे नहीं तो दुनिया के सामने एक बड़ा भीषण संकट पैदा हो सकता है और यकीन जान लीजिये अगर विकसित देश अपनी पुरानी जिद पर अड़े रहते हैं तो तापमान में भारी वृद्धि दर्ज होनी शुरू हो जायेगी ।
वैसे इस बढ़ते तापमान का शुरुवाती असर हमें अभी से ही दिखाई देने लगा है । हिमालय के ग्लेशियर अगर इसी गति से पिघलते रहे तो 2030 तक अधिकांश ग्लेशियर जमीदोंज हो जायेंगे । नदियों का जल स्तर गिरने लगेगा तो वहीँ भीषण जल संकट सामने आएगा । वैसे ग्रीनलैंड में बर्फ की परत पतली हो रही है वहीँ उत्तरी ध्रुव में आर्कटिक इलाके की कहानी भी किसी से शायद ही अछूती है । बर्फ पिघलने से समुद्रो का जल स्तर बढ़ने लगा है जिस कारण आने वाले समय में कई इलाको के डूबने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता । । कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा न केवल उपरी समुद्र में बल्कि निचले हिस्से में भी बढती जा रही है बल्कि पशु पक्षियों में , जीव जंतुओं में भी इसका साफ़ असर परिवर्तनों के रूप में देखा जा सकता है जिनके नवजात समय से पूर्व ही इस दौर में काल के गाल में समाते जा रहे हैं । कई प्रजातियाँ इस समय संकटग्रस्त हो चली हैं जिनमे बाघ, घडियाल , गिद्ध , चीतल , भालू, कस्तूरी मृग, डाफिया, घुरड़, कस्तूरी मृग सरीखी प्रजातियाँ शामिल हैं । लगातार बढ़ रहे तापमान से हिन्द महासागर में प्रवालों को भारी नुकसान झेलना पड़ रहा है । सूर्य से आने वाली पराबैगनी विकिरण को रोकने वाली ओजोन परत में छेद दिनों दिन गहराता ही जा रहा है । हम सब इन बातो से इस दौर में बेखबर हो चले हैं क्युकि आर्थिक उदारीकरण की इकोनोमिक्स की थाप पर आर्थिक सुधारों पर चल रहे इस देश में लोगो को चमचमाते मालों की चमचमाहट ही दिख रही है । ऐसे में प्रकृति से जुड़े मुद्दों की लगातार अनदेखी हो रही है । यह सवाल मन को कहीं ना कहीं कचोटता जरुर है । आईआईटी दिल्ली ने पिछले सौ सालों के तापमान का अध्ययन करके बताया है कि भारत के औसत तापमान में हुई बढ़ोतरी के पीछे कोई प्राकृतिक कारण न होकर सिर्फ और सिर्फ इंसानी हाथ है और हमारे अभी के जीवन-व्यवहार की इसमें एक अहम भूमिका है। इस रिपोर्ट को अगर आधार बनाया जाए तो उत्तराखंड से लेकर जम्मू कश्मीर तक फैले हुए हिमालयी क्षेत्र का तापमान पिछले पांच दशक में ही 3 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। यह वृद्धि कितनी भयानक है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कुछ साल पहले हुए पेरिस जलवायु सम्मेलन में इक्कीसवीं सदी के अंत तक दुनिया का औसत तापमान 2 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा न बढ़ने देने का लक्ष्य रखा गया था। घने वर्षा वनों के लिए मशहूर भारत का पूर्वी तटीय क्षेत्र भी इसी अवधि में 1.7 डिग्री सेल्सियस गर्म हो गया। हिमालय का हाल हाल के बरसों में जितना बुरा हो गया है उतना पहले कभी नहीं था शायद यही वजह है इस दौर में हम पर्यावरण के किसी बड़े हादसे का इंतजार कर रहे हैं । जब पानी सर से ऊपर बह जाता है तब हमें आपदा से निपटने की याद आती है । पिछले दिनों हम केदारनाथ और उत्तराखंड के रैणीं गाँव में आई आपदा के तौर पर देख रहे हैं जहां प्रकृति हमको समझा रही है प्रकृति के साथ मिलकर मनुष्य को चलना होगा अन्यथा मानव प्रजाति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा । फिर भी हम इन संकेतों को डिकोड करने में कामयाब नहीं हुए हैं ।
अगर यही हाल रहा तो 2030 तक पृथ्वी का तापमान 6 डिग्री बढ़ जायेगा । साथ ही आने वाले दिनों में दुनिया में पानी को लेकर सबसे बड़ा संकट पैदा होने जा रहा है । वहीँ पूरे विश्व में ग्लोबल वार्मिंग का असर दिख रहा है जिसके चलते अफ्रीका में खेती योग्य भूमि आधी हो जायेगी । अगर ऐसा हुआ तो खाने को लेकर एक सबसे बड़ा संकट पूरी दुनिया के सामने आ सकता है क्युकि लगातार मौसम का बदलता मिजाज उनके यहाँ भी अपने रंग दिखायेगा । प्राकृतिक असंतुलन को बढाने में प्रदूषण की भूमिका भी किसी से अछूती है । कार्बन डाई आक्साइड , कार्बन मोनो आक्साइड, सल्फर डाई आक्साइड , क्लोरो फ्लूरो कार्बन के चलते आम व्यक्ति सांस लेने में कई जहरीले रसायनों को ग्रहण कर रहा है । नेचर पत्रिका ने अपने शोध में पाया है विश्वभर में तकरीबन एक करोड़ से ज्यादा लोग जहरीले रसायनों को अपनी सांस में ग्रहण कर रहे हैं ।
वायुमंडल में इन गैसों के दूषित प्रभाव के अलावा पालीथीन की वस्तुओ के प्रयोग से कृषि योग्य भूमि की उर्वरता कम हो रही है । यह ऐसा पदार्थ है जो जलाने पर ना तो गलता है और ना ही सड़ता है । साथ ही फ्रिज , कूलर और एसी वाली कार्यसंस्कृति के अत्यधिक प्रयोग , वृक्षों की कटाई के कारण पर्यावरण को नुकसान पहुँच रहा है । जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण , ध्वनि प्रदूषण तो पहले से ही अपना प्रभाव दिखा रहे हैं । अन्तरिक्ष कचरे के अलावा देश के अस्पतालों से निकलने वाला मेडिकल कचरा भी पर्यावरण को नुकसान पंहुचा रहा है जो कई बीमारयो को भी खुला आमंत्रण दे रहा है । ग्लोबल वार्मिंग के कारण मौसम में तेजी से तब्दीली हो रही है । वायुमंडल जहाँ गरमा रहा है वहीँ धरती का जल स्तर भी तेजी से नीचे जा रहा है । इसका ताजा उदाहरण भारत का सुन्दर वन है जहाँ जमीन नीचे धंसती ही जा रही है । समुद्र का जल स्तर जहाँ बढ़ रहा है वहीँ कई बीमारियों के खतरे भी बढ़ रहे हैं । एक शोध के अनुसार समुद्र का जल स्तर 1.2से 2.0 मिलीमीटर के स्तर तक जा पहुंचा है । यदि यही गति जारी रही तो उत्तरी ध्रुव की बर्फ पूरी तरह पिघल जाएगी और अन्टार्कटिका में ताप दशमलव 5 डिग्री की दर से बढ़ रहा है जो चिंता की लकीरें हमारे माथे पर खींच रहा है ।
अब समय आ गया है इस ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को कम करने के लिए ईमानदारी से सभी देशों को मिल जुलकर प्रयास करने की जरुरत है । दुनिया के देशों को अमेरिका के साथ विकसित देशों पर दबाव बनाना चाहिए । अमेरिका की दादागिरी पर रोक लगनी जरुरी है । साथ ही उसका भारत सरीखे विकास शील देश पर यह आरोप लगाना भी गलत है कि विकासशील देश इस समय बड़े पैमाने पर ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कर रहे हैं । ग्लोबल वार्मिंग का दोष एक दूसरे पर मडने के बजाए सभी देशों को इस समय अपने अपने देशों में उत्सर्जन कम करने के लिए एक लकीर खींचने की जरुरत है क्युकि ग्लोबल वार्मिंग की समस्या अकेले विकासशील देशों की नहीं विकसित देशों की भी है जिनका ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में सबसे ज्यादा योगदान रहा है । यकीन जान लीजिये अगर वह अभी भी नहीं चेते तो यह ग्लोबल वार्मिंग पूरी दुनिया के लिए आखिरी वार्निंग साबित हो सकती है ।