ट्यूनिशिया की एक ऐसी क्रांति जिसमें एक बूंद खून भी नहीं बहा, लेकिन देश बदल गया

नई दिल्ली, 6 नवंबर (आईएएनएस)। 1987 के 7 नवंबर की सुबह ट्यूनिशिया के लिए कुछ अलग थी। राजधानी ट्यूनिस शांत थी, लेकिन इतिहास करवट ले चुका था। रात भर सत्ता की दीवारों के भीतर एक ऐसा फैसला लिया गया था जिसने देश की दिशा बदल दी। एक रक्तहीन तख्तापलट की पटकथा लिखी गई और उसने मूर्त रूप भी लिया।

राष्ट्रपति हबीब बुरगीबा, जिन्होंने तीन दशकों तक ट्यूनिशिया पर राज किया, को उसी सरकार ने अपदस्थ कर दिया जिसकी कमान उनके हाथों में दशकों से थी। यह सब हुआ बिना एक भी गोली चले, बिना किसी सड़क पर खून बहे!

1956 में आजादी के बाद से बुरगीबा को 'राष्ट्रपिता' कहा जाता था। उन्होंने शिक्षा, महिला अधिकारों और धर्मनिरपेक्षता की दिशा में कई सुधार किए, लेकिन जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती गई, शासन का ढांचा सख्त और व्यक्तिगत होता गया। उनके आसपास के सलाहकारों ने सत्ता खोने के डर में उनकी सेहत और निर्णय क्षमता को लेकर फिक्र जतानी शुरू कीं। जनता भी अब थक चुकी थी। महंगाई, बेरोजगारी और राजनीतिक दमन से निराश माहौल में देश उबलने लगा था।

इसी पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री जीन एल अबिदीन बेन अली ने बड़ा कदम उठाया। 6 नवंबर की रात उन्होंने सेना और गृह मंत्रालय के चुनिंदा अधिकारियों के साथ बैठक की। योजना सीधी थी सत्ता परिवर्तन संविधान के अनुच्छेद 57 के तहत होगा, ताकि तख्तापलट कानूनी दिखे। आधी रात के बाद निर्णय ले लिया गया। अगली सुबह राष्ट्रीय रेडियो पर ऐलान किया गया, "राष्ट्रपति अब अपने दायित्वों का निर्वहन करने में असमर्थ हैं। प्रधानमंत्री जीन एल अबिदीन बेन अली कार्यवाहक राष्ट्रपति होंगे।"

देश ने यह खबर सुनी, पर सब शांत रहा। सड़कों पर सन्नाटा छाया रहा, लोग काम पर भी निकले, लेकिन सब जान चुके थे कि ट्यूनिशिया में अब एक नया अध्याय शुरू हो गया है। विदेशी अखबारों ने लिखा, "अ कू विद्आउट ब्लड, बट फुल ऑफ कैलकुलेशन।"

राजनीतिक विज्ञानी लिसा एंडरसन ने अपनी किताब 'ट्यूनिशिया: स्टेबिलिटी एंड रिफॉर्म इन द मॉर्डन मगरीब' में लिखा कि यह "एक सावधानी से रची गई राजनीतिक सर्जरी" थी, जिसमें किसी को चोट नहीं पहुंची, लेकिन सत्ता का दिल बदल गया। एमेल बूबेक्युर ने अपनी शोध में लिखा, “यह बुरगीबा युग की थकान से मुक्ति जैसा था। लोगों को लगा जैसे किसी ने देश से बोझ हटा दिया हो।”

शुरुआत में बेन अली ने लोकतंत्र और पारदर्शिता की बातें कीं। उन्होंने कहा, “अब कोई आजीवन राष्ट्रपति नहीं होगा, जनता की आवाज सुनी जाएगी।” लोग उम्मीद करने लगे कि शायद अब ट्यूनिशिया एक आधुनिक, खुला देश बनेगा। पर विडंबना यह रही कि अगले तेइस वर्षों तक वही बेन अली खुद सत्ता से चिपके रहे। वही देश, जिसने 1987 में बिना खून बहाए बदलाव देखा था, 2011 में अरब स्प्रिंग की लपटों में घिर गया और उसी जनता ने उन्हें सड़कों पर उतरकर सत्ता से हटाया।

--आईएएनएस

केआर/

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