नई दिल्ली, 14 सितंबर (आईएएनएस) बांग्लादेश में पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना को 2024 में पद से हटाने के बाद लोकतंत्र बहाल करने के वादे की जगह बढ़ती अराजकता, भीड़तंत्र और कट्टरपंथी समूहों का हौसला बढ़ गया है, जिससे नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस के अंतरिम प्रशासन के तहत चुनावों की विश्वसनीयता पर संदेह पैदा हो गया है।
हसीना के नाटकीय पतन को बांग्लादेश की राजनीति को नए सिरे से स्थापित करने के अवसर के रूप में देखा गया, लेकिन मजबूत संस्थाओं के अभाव और गुटीय विभाजन ने जल्द ही सत्ता का शून्य पैदा कर दिया।
यूनुस की कार्यवाहक सरकार, जिसे एक तकनीकी पुल के रूप में देखा गया था, ने इसके बजाय व्यापक अव्यवस्था को नियंत्रित किया है।
यूरोपियन टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, हसीना के जाने के बाद के वर्ष में अधिकार समूहों ने देश भर में 637 लिंचिंग की घटनाओं का दस्तावेजीकरण किया, जिसमें औपचारिक विवाद समाधान की जगह भीड़ द्वारा न्याय ने ले ली।
रिपोर्ट में कहा गया है, "जनवरी 2025 में पुलिस ने स्वयं हिंसा के पैमाने को स्वीकार किया और एक विवादास्पद रिपोर्ट जारी की जिसमें सांप्रदायिक पहलू को कम करके आंकने की कोशिश की गई। अल्पसंख्यकों के खिलाफ 1,769 हमलों में से अधिकारियों ने दावा किया कि 1,200 से ज्यादा धार्मिक रूप से प्रेरित होने के बजाय 'राजनीति से प्रेरित' थे, जिनमें से केवल 20 को ही विशुद्ध रूप से सांप्रदायिक के रूप में वर्गीकृत किया गया था।"
पुलिस पर अक्सर मिलीभगत या निष्क्रियता का आरोप लगाया जाता है, वह जनता का विश्वास बहाल करने में विफल रही है। अल्पसंख्यक समुदाय सबसे ज्यादा असुरक्षित बने हुए हैं।
अगस्त 2024 और 2025 के मध्य के बीच निगरानीकर्ताओं ने हिंदुओं, बौद्धों, ईसाइयों और अहमदियों को निशाना बनाकर की गई सांप्रदायिक हिंसा की 2,442 घटनाएं दर्ज कीं, जिनमें आगजनी, हत्याएं और यौन हमले शामिल हैं।
फरवरी 2025 की एक संयुक्त राष्ट्र रिपोर्ट में अल्पसंख्यकों और मूलनिवासी समूहों पर जानबूझकर किए जा रहे हमलों की चेतावनी दी गई थी और अंतरिम सरकार पर कार्रवाई न करने का आरोप लगाया गया था।
स्थानीय नेताओं का कहना है कि केवल नाममात्र की जांच शुरू की गई है, केवल 62 मामले दर्ज किए गए हैं और 35 गिरफ्तारियां हुई हैं।
उल्लेखनीय रूप से कट्टरपंथी आवाजें भी जोर पकड़ रही हैं।
मार्च में हजारों हिज्ब-उत-तहरीर समर्थकों ने ढाका में इस्लामी खिलाफत की मांग करते हुए खुलेआम मार्च निकाला।
विश्वविद्यालयों और मीडिया संस्थानों को अब धमकियों का सामना करना पड़ रहा है, जबकि महिलाओं ने सार्वजनिक स्थानों पर बढ़ते उत्पीड़न की रिपोर्ट दी है।
बिगड़ते सुरक्षा माहौल ने दक्षिण एशियाई देश में आगामी चुनावों की व्यवहार्यता पर चिंताएं बढ़ा दी हैं।
विश्लेषकों का तर्क है कि कानून-व्यवस्था के बिना अल्पसंख्यक उम्मीदवार और धर्मनिरपेक्ष आवाजें स्वतंत्र रूप से प्रचार नहीं कर सकतीं, मतदान अधिकारी सुरक्षित रूप से काम नहीं कर सकते, और मतदाता बिना किसी डर के मतदान में भाग नहीं ले सकते।
--आईएएनएस
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