Majrooh Sultanpuri Biography : गीतकार मजरूह के शब्दों में गीत के साथ जज्बात भी... (लीड-1)

गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी: शायरी और गीतों से हिंदी सिनेमा में अमर छाप छोड़ने वाले कवि।
यादों में 'सुल्तान' : गीतकार मजरूह के शब्दों में गीत के साथ जज्बात भी... (लीड-1)

मुंबई: भारतीय सिनेमा में कुछ गीतकार ऐसे होते हैं, जिनकी कलम सिर्फ गीत नहीं लिखती, बल्कि वह पीढ़ियों के दिलों की धड़कन बन जाती है। मजरूह सुल्तानपुरी, जो अपनी शायरी में एक दार्शनिक की गहराई और एक विद्रोही का जोश रखते थे, ऐसे ही एक महान गीतकार थे।

एक शायर और गीतकार जिन्होंने अपनी लेखनी से न सिर्फ प्रेम की मिठास बिखेरी, बल्कि दर्द, संघर्ष और सामाजिक संदेशों को भी शब्दों में पिरोया। मजरूह सुल्तानपुरी वो जादूगर थे, जिनके गीत आज भी हमारे दिलों में गूंजते हैं।

मजरूह की लेखनी की खासियत थी, उनकी सादगी और गहराई। चाहे प्रेम का जश्न हो या टूटे दिल का मातम, उनके शब्द हर भाव को जीवंत कर देते थे। फिल्म 'अंदाज' (1949) के गाने हर पीढ़ी के साथ जुड़ गए।

उन्होंने हिंदी सिनेमा के कई दिग्गजों के साथ काम किया और हर बार अपनी लेखनी से कहानी को नई ऊंचाइयों तक ले गए। मजरूह की खूबी थी कि वे हर दौर के साथ बदले, फिर भी अपनी जड़ों से जुड़े रहे।

मजरूह सुल्तानपुरी पहले गीतकार थे, जिन्हें 1964 में फिल्म 'दोस्ती' के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार से नवाजा गया। 1994 में उन्हें भारतीय सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान, दादासाहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

1 अक्टूबर 1919 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर में जन्मे मजरूह का असली नाम असरार हसन खान था। उर्दू साहित्य और शायरी के प्रति उनका प्रेम बचपन से ही था। एक पारंपरिक परिवार में पले-बढ़े मजरूह ने हकीम (यूनानी चिकित्सक) के रूप में करियर शुरू किया, लेकिन उनकी आत्मा शब्दों में बसी थी।

मुशायरों में उनकी शायरी ने जल्द ही उन्हें स्थानीय ख्याति दिलाई। 1940 के दशक में जब वे मुंबई पहुंचे, तो उनकी मुलाकात मशहूर निर्माता-निर्देशक करदार साहब से हुई। यहीं से शुरू हुआ उनका सिनेमा का सफर।

यह बात 1940 के दशक की है, जब मजरूह सुल्तानपुरी अपनी साहित्यिक नज्मों और गजलों के लिए जाने जाते थे। वह 'प्रगतिशील लेखक संघ' के एक प्रमुख सदस्य थे और फिल्मी गीतों को अपनी कला के दर्जे से कमतर मानते थे। उनकी इस सोच के बावजूद महान गायक केएल सहगल ने उन्हें मुंबई बुलाया।

सहगल ने मजरूह को उस दौर के सबसे बड़े संगीतकार नौशाद से मिलवाया। नौशाद ने मजरूह से उनकी कला का एक छोटा सा इम्तिहान लेने का फैसला किया। उन्होंने मजरूह से कहा कि वह एक खास परिस्थिति पर एक गीत लिखें, जहां एक नायक और नायिका पहली बार मिल रहे हों।

मजरूह को यह सब बेहद अजीब लगा। उन्हें लगा कि फिल्मी गीतकार बनना उनकी साहित्यिक प्रतिष्ठा के खिलाफ है। उन्होंने नौशाद और वहां मौजूद अभिनेता दिलीप कुमार से सीधे शब्दों में कह दिया, "मैं इस तरह की शायरी नहीं करता। मैं तो बस अपनी गजलें और नज्में लिखता हूं।"

नौशाद और दिलीप कुमार ने मजरूह के इस जवाब में उनकी ईमानदारी देखी। दिलीप कुमार ने उन्हें समझाया कि कला किसी भी रूप में हो, वह कला ही रहती है, चाहे वह एक साहित्यिक मंच पर हो या सिनेमा के लिए।

मजरूह ने आखिरकार उनके कहे अनुसार एक गीत लिखा, जिसने नौशाद को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने मजरूह को अपना पहला फिल्मी गीत लिखने का मौका दिया। मजरूह ने जो गीत लिखा, वह था "जब उसने गेसू बिखराए..."

 

 

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