सत्ता, प्रशासन की उदासीनता का नतीजा
सुधीर जोशी
विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक राष्ट्र भारत में अमृत महोत्सव मनाने का सिलसिला जारी है। इसी दौर में यह भी पूछा जा रहा है कि क्या किसी स्वतंत्र देश के 75 वर्ष होने के बाद भी अगर वहां सीमा-विवाद का मामला मुंह बाए खड़ा हो तो यह बात बहुत दूरतलक जाएगी। मराठी भाषा बोलने वाले लोगों की बहुलता के कारण 1960 में महाराष्ट्र राज्य अस्तित्व में आया, लेकिन राज्य की स्थापना के 62 वर्ष होने के बाद भी महाराष्ट्र-कर्नाटक के बीच का सीमा विवाद का मसला खत्म नहीं हुआ है।
सीमा विवाद को लेकर महाराष्ट्र में अनेक आंदोलन भी हुए हैं। बेलगांव परिसर महाराष्ट्र में विलीन हो, इसलिए आचार्य अत्रे, ना। ग। गोरे, प्रबोधनकार ठाकरे, अण्णा डांगे,स। का। पाटिल के नेतृत्व में महाराष्ट्र एकीकरण समिति अस्तित्व में आई। कन्नड लोगों के पंजे से बेलगांव को मुक्ति मिले, इसके लिए महाराष्ट्र में आंदोलन किया गया।बेलगांव के लिए छिड़ी जंग में 105 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी, फिर भी हम बेलगांव जैसे सीमावर्ती क्षेत्र को न्याय नहीं दे पाए, इसे अपनी शोकांतिका कहा जाए, या राज्यकर्ताओं की उदासीनता, यह बहुत बड़ा सवाल है। मराठी लोगों को न्याय तथा उसका अधिकार दिलाने वाली शिवसेना ने उठा लुंगी बजा पुंगी जैसे अनेक आंदोलन किए, बावजूद इसके बेलगांव के हाथ कुछ नहीं लगा।
पिछले 62 वर्ष से बेलगांव को लेकर सीमा विवाद जारी है। बेलगांव को लेकर उलझे सवालों में बेलगांव का सामान्य व्यक्ति उलझ कर रह गया है।यह मामला सिर्फ दो राज्यों तक सीमित न वर्तमान मेंराष्ट्रीय संकट के रूप में सामनेआयाहै। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भी इस मुद्दे को बड़ी गंभीरता से लिया है। महाराष्ट्र तथा कर्नाटक दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री से जल्दी ही इस मसले पर चर्चा करेंगे। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे तथा उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने इस मुद्दे पर बड़ी बेबाकी से कहा है कि 40 गांव तो क्या एक भी गांव महाराष्ट्र से कर्नाटक में नहीं जाएगा।
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे तथा कर्नाटक के मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई दोनों ही इस मुद्दे को लेकर बेहद आक्रामक हैं। पिछले पांच दशकों से कर्नाटक की सीमा पर स्थित बेलगांव की जनता महाराष्ट्र में शामिल होने के लिए संघर्षरत है। सीमा क्षेत्र के मराठी भाषा-भाषियों पर हुए अन्याय को दूर करने के लिए संघर्ष लगातार जारी है। 17 जनवरी 1956 को बेलगांव, कारवार तथा बिदर इन मराठी भाषियों के गांव तत्कालीन मैसूर राज्य में समाविष्ट किए गए। महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद के बीच महाराष्ट्र के कुछ अन्य जिलों से भी कुछ गांवों को दूसरे राज्य में शामिल होने की मंशा भी साफ हुई दिखाई देती है।
नाशिक जिले के अंतर्गत आने वाले सुरगाणा तहसील के सीमावर्ती क्षेत्र में स्थित गांवों को गुजरात में शामिल करने की मांग भी जोर पकड़ने लगी है। सुरगाणा तहसील के सीमावर्ती गांवों को गुजरात में शामिल करने की मांग संबंधी ज्ञापन राकांपा के सुरगाणा तहसील अध्यक्ष चिंतामण गावित ने सुरगाणा के तहसीलदार को सौंपा। उधर महाराष्ट्र के नांदेड जिले के 6 गांव तेलंगाना को चाहिए। कहा जा रहा है कि महाराष्ट्र में रहने की वजह से नांदेड जिले के सीमावर्ती भाग में स्थित माहूर, किनवट, धर्माबाद, उमरी, देगलूर, बिलोली गांव को तेलंगाना में शामिल करने का स्वर आंदोलन के माध्यम से बुलंद होता रहा है।
उल्लेखनीय है कि कर्नाटक राज्य में जिन-जिन स्थानों पर मराठी भाषा-भाषी लोग रहते हैं, उनके साथ वहां की सरकार सौतेला व्यवहार करती है, इसलिए वहां के मराठी भाषी लोग कर्नाटक राज्य से मुक्ति चाह कर महाराष्ट्र में आना चाहते हैं। महाराष्ट्र-कर्नाटक के बीच 40 गांवों को लेकर जो विवाद शुरु जारी है, वह भाषा के स्तर पर ज्यादा है। यह विवाद जमीनी अधिकार को लेकर नहीं भाषाई आधार पर है।
कर्नाटक में जो लोग गैर मराठी भाषी है, वहां की भाषा बोलते हैं, वहां की कला संस्कृति को आत्मसात करते हैं, वे वहां के सम्मानित व्यक्ति हैं और वहां रहने वाले मराठी भाषी लोगों के साथ हर स्तर पर दोयम दर्जे का व्यवहार उन्हें स्वयं ही वहां से अलग होने के लिए बाध्य कर रहा है, ऐसे में यह भी सवाल उठ रहा है कि अगर कर्नाटक तथा महाराष्ट्र की सीमा पर स्थित मराठी-कन्नड भाषा-भाषियों की बहुलता को ध्यान में रखकर कहीं यह तो षडयंत्र नहीं रचा जा रहा है कि सीमावर्ती गांव के लोग ही चाहते हैं कि वे अपनी पंसद के राज्य का हिस्सा बन जाएं।
भाषाई आधार पर कर्नाटक के सीमावर्ती क्षेत्रों के नागरिकों ने 1 नवंबर, 1956 से महाराष्ट्र में बने रहने की मांग को लेकर संघर्ष शुरू किया। आंदोलनों के बाद, राजनीतिक प्रस्तावों, राज्य और केंद्र सरकारों के प्रतिवेदनों पर ध्यान नहीं दिया गया। महाराष्ट्र ने 2004 में इस मुद्दे को सर्वाेच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। यह मामला 18 वर्ष पुराना हो गया है। 18 वर्ष से सीमावर्ती गांव के लोग इस आशा में जी रहे हैं कि उन्हें न्याय मिलेगा। सराकारें आई और चली गई। एक के बाद दूसरे मुख्यमंत्री ने कुर्सी संभाली। पुराने पीढ़ी के लोगों का कहना है कि देश की आजादी के बाद अगर सीमा विवाद जैसे मुद्दों को हल कर लिया जाता तो आज बेलगांव समेत अनेक सीमावर्ती गांव के लोग सुख-चौन का जीवन बीता रहे होते।
सीमावर्ती विवाद को हल करने में कर्नाटक सरकार ने उदासीनता ही दिखायी है। उसकी यही नियत रही है कि सीमावर्ती गांव कर्नाटक से अलग न हों, इसीलिए अब तक कर्नाटक की ओर से कई बार इस मसले पर सुनवाई टाली है। 2014 में कर्नाटक की ओर सरकार से न्यायालय में दायर एक याचिका में कहा गया था कि सुप्रीम कोर्ट के पास इस मामले की सुनवाई करने का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है, इसलिए याचिका को खारिज कर दिया गया था। कर्नाटक सरकार की ओर दायर पुनर्विचार याचिका पर फैसला आना अभी बाकी है।
बेलगाव का आम आदमी मराठी भाषा और कन्नडी संस्कृति में फंस कर रह गया है, इस वजह से यह सीमा विवाद स्थानीय लोगो के दुख दर्द का मूल कारण बन कर रह गया है।सच तो यह है भाषाई आधार पर प्रांत रचना करते समय स्थानीय लोगों के मन को टटोला गया होता तो आज हालत बहुत अलग रहते। सोलापुर के दक्षिण तथा कर्नाटक के उत्तर ईशान्य का क्षेत्र वैसे मूलत अकालग्रस्त क्षेत्र होने के कारण यहां वर्षा बहुत कम होती है, इसलिए यहां के किसानों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ता है। इस परिसर की भौगोलिकता को ध्यान में रखते हुए यहां रोजगार का निर्माण होना बहुत जरूरी था। इस क्षेत्र में आज भी रोजगार की समस्या मुंह बाए खड़ी है।
आज सीमावर्ती प्रांत में शिक्षा, रोजगार, औद्योगिकता तथा कृषि पूरक उद्योग धंधे की नितांत आवश्यकता है। अब तक इस बारे में न तो केंद्र सरकार ने विचार किया और न ही राज्य सरकार ने इस ओर ध्यान दिया है। केवल वोट की स्वार्थी राजनीति के कारण यहां के गरीब लोगों को विभिन्न राजनीतिक दलों ने छला है। सीमावर्ती क्षेत्र की यही हालत होने के लिए नेताओं की अनास्था तथा प्रशासन की उदासीनता जिम्मेदार है। आज सोलापुर के अक्कलकोट- जत तहसील के लोगों के कर्नाटक में विलीन होने की जिद्द न ठानी होती तो सीमा विवाद का मामला सामने नहीं आया होता।
जनहित, भाषाई मामलों, मराठी बोलने वालों की संख्या, संस्कृति, आर्थिक आदान-प्रदान जैसे कुछ मुद्दों पर आधारित यह मामला कोर्ट में चल रहा है, लेकिन इस दौरान कर्नाटक सरकार ने आंदोलन को दबाने के लिए अपनी ताकत झोंक दी है। स्थिति यह है कि यहां के मराठी स्कूलों में कन्नड़ भाषी प्रशासक नियुक्त करने से लेकर सरकारी दस्तावेज, साथ ही विभिन्न माध्यमों से कर्नाटक सरकार का दमन जैसे कि कन्नड़ भाषा में प्रशासनिक मामले करना, भाषाई भेदभाव, मराठी भाषियों को भाषाई अल्पसंख्यक के रूप में उनके अधिकारों से वंचित करना, सीमा प्रदर्शनकारियों के खिलाफ मामले दर्ज करना, श्बेलगावश् का नाम बदलकर श्बेलगावीश् करना जैसे मुद्दों ने वहां के लोगों में टकराव बढा दिया है।
एकनाथ शिंदे, जो वर्तमान में महाराष्ट्र राज्य के मुख्यमंत्री हैं, ने 1986 के सीमा विरोध में भाग लेने के लिए 40 दिनों की जेल की सजा भी काटी है, इसलिए वे इस सवाल से वाकिफ हैं कि महाराष्ट्र- कर्नाटक सीमा पर हालात कैसे हैं, समस्या की जड़ क्या है। इस मामले में होना तो होना तो यह चाहिए कि दोनों राज्यों के सभी नेताओं और कार्यकर्ताओं को इस मुद्दे, इससे जुड़े अब तक के सामाजिक-राजनीतिक घटनाक्रम, सीमावर्ती इलाकों की स्थिति, अदालती लड़ाई और सभी मोर्चों पर पुरजोर तरीके से पैरवी करने की पूरी जानकारी दी जानी चाहिए। अगर हर स्तर पर ऐसा काम होता है तो राज्य की स्थापना के बाद से लगातार संघर्ष कर रहे सीमावर्ती क्षेत्रों के मराठी भाषियों को राहत मिलेगी।
मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा मुद्दे के लिए दो समन्वयक मंत्रियों की नियुक्ति के बाद से यह मुद्दा गहन चर्चा में आ गया है। भले ही इस मुद्दे पर अदालती लड़ाई शुरू हो गई है, बेलगांव में मध्य महाराष्ट्र एकीकरण समिति ने राज्य के मंत्री चंद्रकांत पाटिल को चर्चा के लिए आमंत्रित किया है। महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा का मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। मध्य महाराष्ट्र एकीकरण समिति चाहती है कि बेलगांव के कार्यकर्ताओं के साथ इस मसले पर चर्चा की जाए।
महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद कई वर्षों से चला आ रहा है और कर्नाटक सरकार इसे चर्चा के माध्यम से हल करने के प्रयास कर रही है। महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद जल्द ही सुलझने की संभावना है, क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहली बार इस मामले में हस्तक्षेप किया है। दशकों पुराने बेलगांव सीमा मुद्दे का समाधान कैसे निकाला जाए, ऐसा सवाल अब बहुत ही प्रखरता से उठाया जा रहा है। महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद पिछले कई वर्षाे से चला आ रहा है। दोनों के बीच इस मामले में हमेशा तकरार होती रहती है तो अब प्रधानमंत्री मोदी ने इस विवाद को सुलझाने के लिए पहली बार इस मामले में दखल दी है।
कुल मिलाकर यदि देखा जाए तो महाराष्ट्र- कर्नाटक सीमा-विवाद कुछ लोगों के मन की उपज है। कहा तो यह भी जा रहा है कि 2024 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए कर्नाटक- महाराष्ट्र सरकार के बीच वोटबैंक की राजनीति तो इसके पीछे नहीं है। वैसे भी कर्नाटक समेत सभी दक्षिण भारतीय राज्यों में भाजपा की ताकत बहुत कम है, ऐसे में भाजपा कभी नहीं चाहेगी कि सीमावर्ती गांव कर्नाटक का हिस्सा बने। दूसरी ओर कर्नाटक के मुख्यमंत्री की मंशा महाराष्ट्र के सीमावर्ती गांव के कन्नड भाषा-भाषी उनका वोट बैंक बने।
सीमावर्ती गांव के लोगों को वोट बैंक के रूप में देखने की सियासी चाल के कारण सीमा विवाद पांच दशकों से लंबित पड़ा है। अब देखना यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह इस मामले को किस तरह से हल करते हैं।सच तो यह है कि सत्ता, समाज तथा प्रशासन इन तीनों में समन्वय न बन पाने के कारण महाराष्ट्र-कर्नाटक का सीमा प्रश्न नासूर बन गया है। सरकार के ज्यादा लोग क्या चाहते हैं, अगर इस पर ध्यान दिया गया होता तो यह सलाल कब का हल हो गया होता, लेकिन अफसोस वैसा नहीं हो पाया और छह दशक बीत जाने के बाद यह मुद्दा आज भी बरकरार है।
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे तथा कर्नाटक के मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई दोनों ही इस मुद्दे को लेकर बेहद आक्रामक हैं। पिछले पांच दशकों से कर्नाटक की सीमा पर स्थित बेलगांव की जनता महाराष्ट्र में शामिल होने के लिए संघर्षरत है। सीमा क्षेत्र के मराठी भाषा-भाषियों पर हुए अन्याय को दूर करने के लिए संघर्ष लगातार जारी है।बेलगाव का आम आदमी मराठी भाषा और कन्नडी संस्कृति में फंस कर रह गया है, इस वजह से यह सीमा विवाद स्थानीय लोगो के दुख दर्द का मूल कारण बन कर रह गया है। सच तो यह है भाषाई आधार पर प्रांत रचना करते समय स्थानीय लोगों के मन को टटोला गया होता तो आज हालत बहुत अलग रहते। सोलापुर के दक्षिण तथा कर्नाटक के उत्तर ईशान्य का क्षेत्र वैसे मूलत अकालग्रस्त क्षेत्र होने के कारण यहां वर्षा बहुत कम होती है, इसलिए यहां के किसानों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ता है।
—दैनिक हाक फीचर्स