भारत की सीमेंट इंडस्ट्री की क्षमता अगले तीन वित्त वर्षों में 170 मिलियन टन बढ़ने का अनुमान

भारत की सीमेंट इंडस्ट्री की क्षमता अगले तीन वित्त वर्षों में 170 मिलियन टन बढ़ने का अनुमान

मुंबई, 12 नवंबर (आईएएनएस)। भारत की सीमेंट इंडस्ट्री की क्षमता वित्त वर्ष 26 से वित्त वर्ष 28 के बीच 160 से लेकर 170 मिलियन टन तक बढ़ने का अनुमान है, जो बीते तीन वित्त वर्षों में बढ़ी 95 मिलियन टन की क्षमता से अधिक है। यह जानकारी बुधवार को जारी एक रिपोर्ट में दी गई।

क्रिसिल की रिपोर्ट में बताया गया कि सीमेंट इंडस्ट्री की क्षमता में तेज वृद्धि की वजह अच्छी मांग और क्षमता का उच्च उपयोग है।

रिपोर्ट में बताया गया कि तेज विस्तार के कारण अगले तीन वर्षों में इस क्षेत्र में पूंजीगत व्यय 1.2 लाख करोड़ रुपए रहने का अनुमान है, जो कि पिछले तीन वित्त वर्ष में किए गए पूंजीगत व्यय की तुलना में 50 प्रतिशत अधिक है। ज्यादातर हिस्सा ब्राउनफिल्ड के कारण विस्तार में जोखिम कम है और इसमें से ज्यादातर हिस्से को अच्छे ऑपरेटिंग कैश फ्लो से फंड किया जाएगा।

रिपोर्ट में बताया गया कि इसके परिणामस्वरूप सीमेंट निर्माताओं का फाइनेंशियल लीवरेज, जिसे नेट डेट टू ईबीआईटीडीए से मापा जाता है, स्थिर रहेगा। साथ ही, इससे क्रेडिट प्रोफाइल को स्थिर बनाए रखने में मदद मिलेगी।

यह रिपोर्ट 17 सीमेंट निर्माताओं के विश्लेषण पर आधारित है, जिनकी देश में 31 मार्च, 2025 तक स्थापित 668 मीट्रिक टन क्षमता में लगभग 85 प्रतिशत हिस्सेदारी है।

पिछले तीन वित्तीय वर्षों में, सीमेंट की मांग में जबरदस्त वृद्धि देखी गई है और उत्पादन की मात्रा 9.5 प्रतिशत की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (सीएजीआर) के साथ बढ़ी है, जो बुनियादी ढांचे और आवास जैसे प्रमुख क्षेत्रों द्वारा संचालित है। परिणामस्वरूप, पिछले वित्तीय वर्ष में क्षमता उपयोग लगभग 70 प्रतिशत तक बढ़ गया, जबकि दशकीय औसत 65 प्रतिशत था।

क्रिसिल रेटिंग्स के निदेशक आनंद कुलकर्णी ने कहा कि "वित्त वर्ष 2026-2028 में, सीमेंट निर्माताओं को सालाना 30-40 मीट्रिक टन की अच्छी वृद्धिशील मांग की उम्मीद है, जिससे क्षमताओं में मजबूत वृद्धि होगी।"

रिपोर्ट के अनुसार, क्षमता वृद्धि तो पर्याप्त है, लेकिन इससे जुड़े जोखिम इस कारण से आंशिक रूप से कम हो जाते हैं कि लगभग 65 प्रतिशत क्षमता वृद्धि ब्राउनफील्ड परियोजनाओं के माध्यम से की जाएगी, जिनमें निर्माण अवधि कम होती है और भूमि अधिग्रहण की आवश्यकता सीमित होती है, जिसके परिणामस्वरूप पूंजी लागत कम होती है और कार्यान्वयन चुनौतियां भी कम होती हैं।

--आईएएनएस

एबीएस/

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